फिर वही तनहाई मयस्सर होगी उन्हीं अफसानों में दिन बसर होंगे रतजगों का क्या कहूँ साहिब मौजूदगी से आपकी हम बेखबर होंगे
Thursday, 7 January 2016
जालिम ने कदर तो जानी, पर लूट ली आबरू नजर का धोखा था वो संग रहूँ या क्या करूँ करीब उसको इतना किया अब दूर उसको कैसे करूँ पल भर के लिए ही सही वो अपना था, पर रुखसती में सिर्फ ये शायरी कहूँ तबीयत मुकम्मल होगी जब कभी फिर अल्फ़ाज़ों में उसकी ही बातें कहूँ