Friday, 17 July 2015

तनहाई


आइनें रोज देखे हमने
अक्स धुंधला ही नजर आता है
सोचा फरेबी है आईना मेरा
पर नजर से ही शायद फरेब आता है
शिकायतें हजार थी इस जहां से मेरी
और फिर उन्हीं से दिल हार जाता है।

जिंदगी से रूबरू होकर भी
यहाँ से भागने का दिल करता है
सुना वक़्त हर गम की दवा है
पर वो वक़्त ही जहर लगता है
ना जाने क्यू बेरुखी किस्मत की है
पर किस्मत से ही उम्मीदों का दिया जलता है।

ना थी ख्वाहिशें आसमानों की
पर देख के उड़ानें मन टीस जाता है
भीड़ संग दौड़े बहुत हम
पर उसी में खुद को तन्हा पाता है
किसी को कौन समझाये यहाँ पर
तन्हाइयों से जिंदगी का मजा ही कुछ और आता है

जमानें में गम बहुत है यारों
किसी का चेहरा मगर हमको बचाता है
ऐ जिंदगी कोशिशें बेशुमार कर ले मगर
तड़प कर मुस्कुराना हमें खूब आता है।
फितरत नहीं उम्मीदों के बोझ में दबने की
पर कीजिये क्या अश्क खुद-ब-खुद निकल आता है।

Thursday, 9 April 2015

प्रारम्भ

नई शुरुआतें अक्सर अचानक हो जाती, कुछ कुछ वैसे है जैसे इस ब्लाग की...
देखते है कितना दूर जाएंगे
क्या मंज़िलें मिलती है